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वर् षम ् - ०१ अङ्क: - ०४ २४-३०.०६.२०१७ DIGEST प्रधानसम्पादक: - धीमन्तपरु ोहित: * सिसम्पादक: - भाविनपाठक: प्रकाशक:...

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वर् षम ् - ०१

अङ्क: - ०४

२४-३०.०६.२०१७

DIGEST

प्रधानसम्पादक: - धीमन्तपरु ोहित:

*

सिसम्पादक: - भाविनपाठक:

प्रकाशक: धीमन्तपरु ोहित: www.newzviewz इत्यनया

वर् षम ् - ०१

अङ्क: - ०४

२४-३०.०६.२०१७

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संयोजनम् – भालिन:

मुखपटलचत्रम् – अनराग: मेहता

ु अनक्रमणिका ् ु सभाणर्तम

णित्रकाव्यम ् आर्ाढस्य प्रथमणिवसे

2

् ु सभाणर्तम

ु । ु मधरा तस्माणि काव्यं मधरंु भार्ास ु मख्या

् ु णिव्या गीवाषिभारती । तस्मािणि सभाणर्तम ॥ સંસ્કૃત ભાષા એ દેવવાણી છે , તે સવવ ભાષાઓમાં પ્રમુખ, મધુર અને દદવ્ય છે , તે ભાષાથી પણ સંસ્કૃત કાવ્ય વવશેષ મધુર છે , અને સુભાવષત તો તેનાથી પણ ચદિયાતું છે .

संस्कृ त भाषा िेिों की िािी है, िह सभी भाषाओं में प्रमुख, मधुर एिं दिव्य हैं, इस भाषा से भी संस्कृ त काव्य अलधक मधुर है, और सुभालषत तो उससे भी बढकर हैं ।

Sanskrit, sweet and divine, the language of the gods, is foremost among all languages. Its poetry is sweet, but sweeter still is a verse forceful and eloquent and full of fine sentiment.

3

णित्रकाव्यम ् भाषा पर अपने अप्रलतम अलधकार के चिते लचत्रकाव्य के लजस भालषक चमत्कार (दकराताजुुनीयम् के पंद्रहिें सगु में) की परम्परा भारलि ने शुरू की, उनके बाि के कलियों के लिए िह कसौटी बन गई और माघ (लशशुपाििधम्) में जाकर िह चरमोत्कषु पर पहुँची। लनम्नलिलखत पंलियों में लचत्रािंकार िेलखएएक ही व्यंजन का पूिुरुपेि प्रयोग एकाक्षर श्लोक के लनमाुि की अलनिायुता है और ऐसा करने का प्रयास करने िािे रलचयता के लिये अद्भुत कल्पना शलि का स्िामी होना आिश्यक है। न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु। नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नन े ो नानेना नुन्ननुन्ननुत॥ ् अनुिाि : हे नाना मुख िािे (नानानन)! िह लनलित ही (ननु) मनुष्य नहीं है जो जो अपने से कमजोर से भी परालजत हो जाय। और िह भी मनुष्य नहीं है (ना-अना) जो अपने से कमजोर को मारे (नुन्नोनो)। लजसका नेता परालजत न हआ हो िह हार जाने के बाि भी अपरालजत है (नुन्नोऽनुन्नो)। जो पूिुनतः परालजत को भी मार िेता है (नुन्ननुन्ननुत्) िह पापरलहत नहीं है (नानेना)। इसी प्रकार लनम्नलिलखत श्लोक को ध्यान से िेलखये। इसे सिुतोभद्र (सभी तरफ से सुन्िर) कहते हैं। इसमें पहिी पंलि को बायें से पदढये या िायें से- समान है। इसी तरह सभी पंलियों के प्रथम अक्षर (मात्रा सलहत) िीलजये या अलन्तम अक्षर िीलजये - 'िेिाकालन लमिता है। िेिाकालनलन कािािे िालहकास्िस्िकालह िा। काकारे भभरे का का लनस्िभव्यव्यभस्िलन ॥ एक

अन्य

श्लोक

िेलखये।

इसमें महायमक अिंकार

है



एक

(लिकाशमीयुजुगतीशमागुिा) चार बार आया है दकन्तु अथु लभन्न-लभन्न हैं। लिकाशमीयुजग ु तीशमागुिा लिकाशमीयुजग ु तीशमागुिाः। लिकाशमीयुजग ु तीशमागुिा लिकाशमीयुजग ु तीशमागुिाः ॥ 4

ही

पि

आर्ाढस्य प्रथमणिवसे.......... ् मेघदूतम महाकणव काणििास द्वारा रणित णवख्यात दूतकाव्य है।

ु से णनष्काणसत इसमें एक यक्ष की कथा है णिसे कुबेर अिकािरी कर िेता है। णनष्काणसत यक्ष रामणगणर िवषत िर णनवास करता है।

वर्ाष ऋत ु में उसे अिनी प्रेणमका की याि सतान े िगती है। कामातष ु िौटना यक्ष सोिता है णक णकसी भी तरह से उसका अल्कािरी े दूत के माध्यम संभव नहीं है, इसणिए वह प्रेणमका तक अिना संिश

ु रहे यक्ष से भेिन े का णनश्चय करता है। अके िेिन का िीवन गिार े वाहक भी नहीं णमिता है, इसणिए उसन े मेघ के को कोई संिश

े णवरहाकुि प्रेणमका तक भेिन े की बात माध्यम से अिना संिश सोिी। इस प्रकार आर्ाढ़ के प्रथम णिन आकाश िर उमड़ते मेघों न े काणििास की कल्पना के साथ णमिकर एक अनन्य कृ णत की रिना कर िी। मेघदूत की िोकणप्रयता भारतीय साणहत्य में प्रािीन काि से ही रही है। िहााँ एक ओर प्रणसि टीकाकारों न े इस े संस्कृत कणवयों न े इससे प्रेणरत होकर अथवा इसको आधार बनाकर कई िर टीकाएाँ णिखी हैं , वहीं अनक दूतकाव्य णिखे। भावना और कल्पना का िो उिात्त प्रसार मेघदूत में उििब्ध है, वह भारतीय साणहत्य में ु की भूणमका में इसे णहन्दी वांग्मय का अनिम ु अंश अन्यत्र णवरि है। नागािनषु न े मेघदूत के णहन्दी अनवाि बताया है। ष घ े में यक्ष बािि को मेघदूतम ् काव्य िो खंडों में णवभक्त है। िूवम

ु तक के रास्ते का णववरि िेता है रामणगणर से अिकािरी े है णिसमें और उत्तरमेघ में यक्ष का यह प्रणसि णवरहिग्ध संिश

काणििास न े प्रेमीहृिय की भावना को उड़ेि णिया है। कुछ णवद्वानों न े इस कृ णत को कणव की व्यणक्तव्यंिक (आत्मिरक) रिना माना है। "मेघदूत" में िगभग ११५ िद्य हैं , यद्यणि अिग अिग संस्करिों में

इन िद्यों की संख्या हेर-फे र से कुछ अणधक भी णमिती है। डॉ॰ एस.

ु मूि "मेघदूत" में इससे भी कम १११ िद्य हैं , शेर् के . िे के मतानसार बाि के प्रक्षेि िान िड़ते हैं । 5

णित्रम –् वासिेु वकामथ:

ष घ े िूवम

ु कणश्चत्कान्ताणवरहगरुिा स्वाणधकारात्प्रमत: शािेनास्तग्ड:णमतमणहमा वर् षभोग्येि भत:षु । यक्षश्िक्रे िनकतनयास्नानिण्ु योिके र् ु

ु णिग्धच्छायातरुर् ु वसणतं रामणगयाषश्रमेर्।। कोई यक्ष था। वह अिन े काम में असावधान हुआ तो यक्षिणत न े उसे शाि णिया णक वर् ष-भर ित्नी का भारी णवरह सहो। इससे उसकी मणहमा ढि गई। उसन े रामणगणर के आश्रमों में बस्ती बनाई िहााँ घन े छायािार िेड़ थे और िहााँ सीता िी के स्नानों द्वारा िणवत्र हुए िि-कं ु ड भरे थे। तणस्मन्नद्रो कणतणििबिाणवप्रयक्ु त: स कामी नीत्वा मासान्कनकवियभ्रंशणरक्त प्रकोष्ठ:

आर्ाढस्य प्रथमणिवसे मेघमाणिष्टसान ु

वप्रक्रीडािणरितगिप्रेक्षिीयं ििशष।।

ु स्त्री के णवछोह में कामी यक्ष न े उस िवषत िर कई मास णबता णिए। उसकी किाई सनहिे कं गन के

णखसक िान े से सूनी िीखन े िगी। आर्ाढ़ मास के िहिे णिन िहाड़ की िोटी िर झकेु हुए मेघ को उसन े िेखा तो ऐसा िान िड़ा ि ैसे ढूसा मारन े में मगन कोई हाथी हो। ु कौतकाधानहे ु तस्य णित्वा कथमणि िर: तो-

ु रािरािस्य िध्यौ। रन्तवाषष्िणश्चरमनिरो

ु मेघािोके भवणत सणखनो∙प् यन्यथावृणत्त िेत:

ु रसंस्थे।। कण्ठाश्िेर्प्रिणयणन िन े णकं िनदूष

ु कामोत्कं ठा िगान ेवािे मेघ के सामन े णकसी तरह ठहरकर, आाँसओ ु ं को भीतर यक्षिणत का वह अनिर

ु िन का णित्त भी और तरह का ही रोके हुए िेर तक सोिता रहा। मेघ को िेखकर णप्रय के िास में सखी हो िाता है, कं ठाणिं गन के णिए भटकते हुए णवरही िन का तो कहना ही क्या? प्रत्यासन्न े नभणस िणयतािीणवतािम्बनाथी

िीमूतने स्वकुशिमयीं हारणयष्यन्प्रवृणत्तम।्

ु कणल्पताघाषय तस्मै स प्रत्यग्र ै: कुटिकुसमै:

ु प्रीत: प्रीणतप्रमखविनं स्वागतं व्यािहार।। 6

िब सावन िास आ गया, तब णनि णप्रया के प्रािों को सहारा िेन े की इच्छा से उसन े मेघ द्वारा अिना

कुशि-सन्िेश भेिना िाहा। णफर, टटके णखिे कुटि के फू िों का अर्घयष िेकर उसन े गिगि हो प्रीणतभरे विनों से उसका स्वागत णकया। धूमज्योणत: सणििमरुतां संणनिात: क्व मेघ: े ाथाष: क्व िटुकरि ै: प्राणिणभ: प्राििीया:। संिश ु ु इत्यौत्सक्याििणरगियन् गह्यकस् तं ययािे

ु कामाताष णह प्रकृ णतकृ ििाश्िेतनािेतनर्ु ।।

धएाँु , िानी, धूि और हवा का िमघट बािि कहााँ? कहााँ सन्िेश की वे बातें णिन्हें िोखी इणियोंवािे प्रािी ही िहुाँिा िाते हैं ? उत्कं ठावश इस िर ध्यान न िेत े हुए यक्ष न े मेघ से ही यािना की। िो काम के सताए हुए हैं , वे ि ैसे िेतन के समीि वैस े ही अिेतन के समीि भी, स्वभाव से िीन हो िाते हैं । ु िातं वंश े भवनणवणिते िष्ु करावतषकानां

ु कामरूिं मघोन:। िानाणम त्वां प्रकृ णतिरुर्ं

ु हं तेनाणथ षत्वं त्वणय णवणधवशादूरबन्धगषतो

ु नाधमे िब्धकामा।। याण्िा मोघा वरमणधगिे

िष्ु कर और आवतषक नामवािे मेघों के िोक-प्रणसि वंश में तमु िनमे हो। तम्ु हें मैं इन्द्र का कामरूिी

मख्ु य अणधकारी िानता हाँ। णवणधवश, अिनी णप्रय से दूर िड़ा हुआ मैं इसी कारि तम्ु हारे िास यािक ु बना हाँ। गिीिन से यािना करना अच्छा है, िाहे वह णनष्फि ही रहे। अधम से मााँगना अच्छा नहीं, िाहे सफि भी हो। संतप्तानां त्वमणस शरिं तत्ियोि! णप्रयाया: े ं मे हर धनिणतक्रोधणविेणर्तस्य। संिश गन्तव्या ते वसणतरिका नाम यक्षेश्वरािां बाह्योद्यानणितहरणशरश्िणिकाधौतह्मर्म्ाष ।।

िो सन्तप्त हैं , है मेघ! तमु उनके रक्षक हो। इसणिए कुबेर के क्रोधवश णवरही बन े हुए मेरे सन्िेश को

ु में तम्ु हें िाना है, िहााँ बाहरी उद्यान णप्रया के िास िहुाँिाओ। यक्षिणतयों की अिका नामक प्रणसि िरी में ब ैठे हुए णशव के मस्तक से णछटकती हुई िााँिनी उसके भवनों को धवणित करती है। 7

त्वामारूढं िवनििवीमद्गु हीतािकान् ता: ृ

प्रेणक्षष्यन्ते िणथकवणनता: प्रत्ययािाश्वसन्त्य:। ु त्वय्यिेु क्षते िायां क: संनिे णवरहणवधरां

न स्यािन्योsप्यहणमव िनो य: िराधीनवृणत्त:।।

िब तमु आकाश में उमड़ते हुए उठोगे तो प्रवासी िणथकों की णियााँ महाँ ु िर िटकते हुए घघ ाँ ु रािे बािों को ऊिर फेंककर इस आशा से तम्ु हारी ओर टकटकी िगाएाँगी णक अब णप्रयतम अवश्य आते होंगे। ु े िर कौन-सा िन णवरह में व्याकुि अिनी ित्नी के प्रणत उिासीन रह सकता है, यणि तम्ु हारे घमड़न उसका िीवन मेरी तरह िराधीन नहीं है? ु िवनश्िानकूु िो यथा त्वां मन्िं मन्िं निणत

वामश्िायं निणत मधरंु िाकतस्ते सगन्ध:। गभाषधानक्षििणरियान्नूनमाबिमािा:

ु खे भवन्तं बिाका:।। सेणवष्यन्ते नयनसभगं

अनकूु ि वाय ु तम्ु हें धीमे-धीमे ििा रही है। गवष-भरा यह ििीहा तम्ु हारे बाएाँ आकर मीठी रटन िगा

ु रहा है। गभाषधान का उत्सव मनान े की अभ्यासी बगणियााँ आकाश में िंणक्तयााँ बााँध-बााँधकर नयनों को ु िगन ेवािे तम्ु हारे समीि अवश्य िहुाँिग सभग ें ी। तां िावश्यं णिवसगिनातत्िरामेकित्नी-

िव्यािन्नामणवहतगणतद्रषक्ष्यणस भ्रातृिायाम।्

ु आशाबन्ध: कुसमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां

सद्य:िाणत प्रिणय हृियं णवप्रयोगे रुिणि।। णवरह के णिन णगनन े में संिग्न, और मेरी बाट िेखते हुए िीणवत, अिनी उस िणतव्रता भौिाई को, हे

ु ु मार प्रेम भरे हृिय को आशा मेघ, रुके णबना िहुाँिकर तमु अवश्य िेखना। नाणरयों के फू ि की तरह सक का बन्धन णवरह में टूटकर अकस्मात णबखर िान े से प्राय: रोके रहता है। ु कतुं ु यच्ि प्रभवणत महीमणििीन् रामवन्ध्यां

ु गणिषतं मानसोत्का:। तच्छत्वा ते श्रविसभगं आकै िासाणद्वसणकसियच्छेििाथेयवन्त:

स ैित्स्यन्ते नभणस भवती रािहंसा: सहाया:।। 8

ु े गिषन णिसके प्रभाव से िृथ्वी खम्ु भी की टोणियों का फुटाव िेती और हरी होती है, तम्ु हारे उस सहावन को िब कमिवनों में रािहंस सनेंु ग,े तब मानसरोवर िान े की उत्कं ठा से अिनी िोंि में मृिाि के अग्रखंड का िथ-भोिन िेकर वे कै िास तक के णिए आकाश में तम्ु हारे साथी बन िाएाँग।े आिृच्छस्व णप्रयसखमम ं ु तग्ु ड़माणिग्ड़ि शैिं ु ं ु ां रघिणतििै वन्द्य ै: िस रणकड़तं मेखिास।ु

कािे कािे भवणत भवतो यस्य संयोगमेत्य

् ु स्न ेहव्यणक्तणश्चरणवरहिं मञ्चतो वाष्िमष्ु िम।।

अब अिन े प्यारे सखा इस ऊाँ िे िवषत से गिे णमिकर णविा िो णिसकी ढालू िट्टानों िर िोगों से

ु के िरिों की छाि िगी है, और िो समय-समय िर तम्ु हारा सम्िकष णमिन े के कारि वन्िनीय रघिणत िम्बे णवरह के तप्त आाँस ू बहाकर अिना स्न ेह प्रकट करता रहता है। ु मागुं तावच्ृि ु कथयतस्त्वत्प्रयािानरूिं

े ं मे तिन ु ििि! श्रोष्यणस श्रोत्रिेयम।् संिश

णखन्न: णखन्न: णशखणरर् ु ििं न्यस्यन्ताणस यत्र

क्षीि:क्षीि: िणरिघ ु िय: िोतसां िोिभज्ु य।।

ु हे मेघ, िहिे तो अिनी यात्रा के णिए अनकूु ि मागष मेरे शब्िों में सनो-थक-थककर णिन िवषतों के णशखरों िर ि ैर टे कते हुए, और बार-बार तनक्षीि होकर णिन सोतों का हिका िि िीते हुए तमु ु िो कानों से िीन े योग्य है। िाओगे। िीछे, मेरा यह सन्िेश सनना ु ं ं हरणत िवन: णकं णिणित्यन्ु मखीणभअद्रे: श्रृग

दृषष्टोत्साहश्िणकतिणकतं मग्ु धणसिङग्नाणभ:।

ु ु खं स्नानािस्मात्सरसणनििादुत् ितोिड़्मख:

् णिड़्नागानां िणथ िणरहरन्थूिहस्ताविेिान।।

क्या वाय ु कहीं िवषत की िोटी ही उड़ाये णिये िाती है, इस आशंका से भोिी बािाएाँ ऊिर महाँ ु करके

तम्ु हारा िराक्रम िणक हो-होकर िेखग ें ीे । इस स्थान से िहााँ बेंत के हरे िेड़ हैं , तमु आकाश में उड़ते हुए ं ु ों का आघात बिाते हुए उत्तर की ओर महाँ ु करके िाना। मागष में अड़े णिग्गिों के स्थूि शड 9

ु ता: रत्नच्छायाव्यणतकर इव प्रेक्ष्यमेतत्िरस्

द्वल्मीकाग्रात्प्रभवणत धन:ु खण्डमाखण्डिस्य। ु येन श्यामं विरणततरां काणिमाित्स्यते ते

बहेिवे स्फुणरतरूणिना गोिवेर्स्य णवष्िो:।।

ु ड बााँबी की िम-िम करते रत्नों की णझिणमि ज्योणत-सा िो सामन े िीखता है, इन्द्र का वह धनखं

िोटी से णनकि रहा है। उससे तम्ु हारा सााँविा शरीर और भी अणधक णखि उठे गा, ि ैसे झिकती हुई मोरणशखा से गोिाि वेशधारी कृ ष्ि का शरीर सि गया था। त्वय्यायत्त कृ णर्फिणमणत भ्रूणविासानणभज्ञ ै: प्रीणतणिग्ध ैिषनििवधूिोिन ै: िीयमान:।

ु क्षेत्रमाणरह्य मािं सद्य: सीरोत्कर्िमरणभ

ु णकं णित्िश्िाद्ब्रि िघगणतभू यष एवोत्तरेि।।

खेती का फि तम्ु हारे अधीन है - इस उमंग से ग्राम-बधूणटयााँ भौंहें ििान े में भोिे, िर प्रेम से गीिे

ु अिन े नत्रे ों में तम्ु हें भर िें गी। माि क्षेत्र के ऊिर इस प्रकार उमड़- घमड़कर बरसना णक हि से तत्काि ु उत्तर की ओर िि िड़ना। खरु िी हुई भूणम गन्धवती हो उठे । णफर कुछ िेर बाि िटक-गणत से िन: त्वामासारप्रशणमतवनोिप्िवं साध ु मूध्नाष,

ु वक्ष्यत्यध्वश्रमिणरगतं सानमानाम्रकू ट:।

ु न क्षद्रोणि प्रथमसकृु तािेक्षया संश्रयाय

ु णकं िनयष ु स्तथोच्ि ै:।। प्राप्ते णमत्रे भवणत णवमख:

ु ान े वािे, रास्ते की थकान से िूर, तमु ि ैसे वन में िगी हुई अणग्न को अिनी मूसिाधार वृणि से बझ

उिकारी णमत्र को आम्रकू ट िवषत सािर णसर-माथे िर रखेगा क्षद्रु िन भी णमत्र के अिन े िास आश्रय

के णिए आन े िर िहिे उिकार की बात सोिकर महाँ ु नहीं मोड़ते। िो उच्ि हैं , उनका तो कहना ही क्या?

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ु त.े ......... cont…… अनवतष